Saturday, April 27, 2024
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सीटों का परिसीमन कहीं उत्तराखंड का मकसद ही फेल न कर दे…?

नई दिल्ली / सुरेश उपाध्याय: संसद ने अभी हाल में ही लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने से जुड़े बिल को पास किया है। इस पर 2026 में लोकसभा और विधानसभा सीटों का परिसीमन होने के बाद ही अमल हो पाएगा। परिसीमन के मुद्दे पर भले ही देश के और किसी इलाके में अभी कोई हलचल न हो, लेकिन उत्तराखंड में काफी समय से इस मसले पर मंथन जारी है। राज्य के पहाड़ी इलाकों के लोगों का मानना है कि अगर आबादी के हिसाब से परिसीमन किया जाता है तो इस बार भी पहाड़ की कई और सीटें मैदानी इलाकों में चली जाएंगी और जिस मकसद से उत्तराखंड का गठन किया गया है, वो फेल हो जाएगा। गौरतलब है कि पिछले परिसीमन के बाद पहाड की छह सीटें मैदान में चली गई थीं। स्थानीय लोगों का कहना है कि परिसीमन भौगोलिक आधार पर होना चाहिए, न कि आबादी के आधार पर।

उत्तराखंड राज्य की स्थापना 9 सितंबर 2000 को हुई थी। इस राज्य को उत्तर प्रदेश का विभाजन करके बनाया गया था। तब विधानसभा और विधान परिषद की 30 सीटें उत्तराखंड के हिस्से में आई थीं और इसी के आधार पर राज्य में पहली बार चुनाव हुए। इन सीटों में 19 सीटें पहाड़ की थीं। इसके बाद 2002 में परिसीमन आयोग का गठन होने से पहले कुलदीप सिंह कमिशन ने राज्य की विधानसभा सीटों का परिसीमन किया और उत्तराखंड में विधानसभा की 70 सीटें बनीं। इनमें से 40 पहाड़ी और 30 मैदानी इलाके के हिस्से में आईं। ये परिसीमन भौगोलिक आधार पर किया गया था।

2004 में राष्ट्रीय परिसीमन आयोग का गठन हुआ और 2007 में इसने उत्तराखंड की विधानसभा सीटों का फिर से परिसीमन किया। इस बार परिसीमन का आधार जनसंख्या को रखा गया। मैदानी इलाकों की एक विधानसभा सीट के लिए एक लाख तो पहाड़ी इलाके के लिए 85 हजार की जनसंख्या का मानक रखा गया। इस दूसरे परिसीमन के बाद राज्य में पहाड़ी इलाकों की छह सीटें कम हो गईं और मैदानी इलाकों की इतनी ही सीटें बढ़ गईं। अब पहाड़ की सीटें घटकर 34 रह गईं तो मैदानी इलाके की सीटें बढ़कर 36 हो गईं। इस परिसीमन का आधार 2011 की जनसंख्या थी।

पहाड़ के लोगों और ऐक्टिविस्ट्स का कहना है कि 2026 के परिसीमन का आधार भी अगर जनसंख्या ही रहा तो पर्वतीय इलाके की सीटें और कम हो जाएंगी। इसकी वजह ये है कि चिकित्सा, शिक्षा सुविधाओं की कमी के साथ ही रोजगार न मिलने के कारण पहाड़ों से हाल के सालों में तेजी से पलायन हुआ है। उत्तराखंड के 1700 से ज्यादा गांव भुतहा हो चुके हैं और यहां अब कोई नहीं रहता। पिछले तीन सालों के दौरान ही राज्य के पहाड़ी जिलों से करीब साढ़े तीन लाख लोग पलायन कर गए हैं। इनमें से अधिकतर लोग दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में रोजगार की तलाश में चले गए हैं तो कई लोग गांवों से पलायन कर उत्तराखंड के मैदानी इलाकों में चले गए हैं। इस कारण पहाड़ी इलाकों की आबादी जहां कम हुई है, वहीं राज्य के मैदानी क्षेत्रों में आबादी बढ़ी है। राजनीतिक कारणों से यहां गैर उत्तराखंडी लोगों की आबादी भी हाल के सालों में तेजी से बढ़ी है।

अल्मोड़ा के किशोर पंत कहते हैं कि अगर इस बार भी आबादी के आधार पर उत्तराखंड में परिसीमन किया जाता है तो पहाड़ी इलाकों की सीटें और कम हो जाएंगी। इससे राज्य विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व घट जाएगा। इस नतीजा ये होगा कि सदन में पहाड़ के लोगों की आवाज उठाने वाले और कम हो जाएंगे। रानीखेत के बालम सिंह कहते हैं कि उत्तराखंड को एक पहाड़ी राज्य बनाने के लिए आंदोलन किया गया था, लेकिन तत्कालीन शासकों ने जानबूझकर इसमें यूपी के कई मैदानी इलाके मिला दिए। इससे आंदोलन का मकसद ही फेल हो गया। राज्य की जनता नहीं चाहती थी कि उत्तराखंड राज्य में उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों को मिलाया जाए। वे कहते हैं कि इसका नतीजा अब सामने आ रहा है और पहाड़ी इलाकों की आवाज लगातार कमजोर हो रही है। पहाड़ का इस्तेमाल अब अय्याशी और संसाधनों की लूट के लिए हो रहा है। पंत कहते हैं कि अगर अगला परिसीमन भी आबादी के आधार पर हुआ तो उत्तराखंड के पहाड़ों को बर्बाद होने से कोई नहीं बचा पाएगा। अभी जहां उत्तराखंड के संसाधनों को लूटा जा रहा है, वहीं दूसरे इलाकों के धन्नासेठ और जमीन माफिया पहाड़ो की जमीन कब्जाते चले जा रहे हैं।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया

खबर : ganatantrabharat.com से साभार

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