बसपा सुप्रीमो मायावती के क्षेत्रीय हो या राष्ट्रीय पार्टियां उनका से गठबंधन को लेकर अनुभव कटु ही रहल बा। इहे वजह रहल बा कि कौनो भी दल से उनकर गठबंधन अधिक दिन तक नइखे चल पावल। उनकर हमेशा से इहे आरोप रहल बा कि उनकर वोट बैंक त दूसर पार्टियों के ट्रांसफर हो जात बा, लेकिन दूसरा का वोट उनके नइखे मिलत।
कांशीराम ने शोषितों, पिछड़ों और वंचितों के हक दिलावे के वादा कर यूपी के रजानीति में प्रवेश कईले। बसपा ने सबसे पहले यूपी में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कईलस, लेकिन इ गठबंधन अधिक समय तक ना चल पवलस। मायावती एकरी बाद वर्ष 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़लस। सीटन में भले ही ओके अधिक फायदा न भईल होखे बाकि वोट प्रतिशत में ओके अच्छा-खासा इजाफा भईल। बसपा के वोटिंग प्रतिशत वर्ष 1991 में 10.26 फीसदी रहल जे 1996 में 27.73 हो गईल। इ बात अलग बा कि इ गठबंधन एक साल बाद ही वर्ष 1997 में टूट गईल।
मायावती भले ही राजनीतिक मजबूरियों में कांग्रेस के साथ गठबंधन कईले होखे पर इतिहास देखल जाओ त बसपा के पूरी राजनीति ओकर खिलाफ रहल बा। इसीलिए चाहे राजस्थान भईल या माध्य प्रदेश बसपा के कांग्रेस के साथ पसंद नइखे आइल। ऐसे में अंदाजा लगावल जा सकेला कि राहुल गांधी के आफर के मायावती स्वीकार करिए भीं त अंजाम क्या होइ।
बसपा सुप्रीमों ने जब भी कौनो से गठबंधन कईलस ओके तोड़े में उनके समय नइखे लागल। लोकसभा चुनाव वर्ष 2019 में मायावती गेस्ट हाउस कांड के भुलाते हुए भले ही सपा से गठबंधन कईलस बाकि परिणाम आते ही उनके सपा के वोट ट्रांस्फर न करा पावे के दोषी करार देते हुए नाता तोड़ लिहले। हकीकत देखल जाओ त खुद सपा ही पांच सीटों पर सिमट गईल रहे और बसपा 2014 के मुकाबले जीरो से दस सांसद तक पहुंच गईल।