तरुणा कस्बा, भोजपुरी लाइव, नई दिल्ली
फिल्म ‘शमशेरा’ की कहानी उसी कालखंड की है जिस कालखंड पर एक कमजोर सी फिल्म यश राज फिल्म्स ने ‘ठग्स ऑफ हिंदोस्तां’ के नाम से बनाई थी। उस फिल्म के बाद से आमिर खान की अब तक कोई नई फिल्म नहीं आई है और अमिताभ बच्चन का बॉक्स ऑफिस पर कितना आकर्षण बचा है, ये बात ‘चेहरे’, ‘झुंड’ और ‘रनवे 34’ जैसी फिल्मों के नतीजों से समझी जा सकती है।
खोखले शोध के आधार पर रची ऊपर से रंगी पुती दिखने इन कहानियों की दुनिया दरअसल बहुत नकली होती है। रणबीर कपूर की बड़े परदे पर चार साल बाद वापसी की फिल्म ‘शमशेरा’ की भी यही सबसे बड़ी खामी है।
यहां तो पूरी फिल्म बस दो ठिकानों में ही इसके निर्देशक ने निपटा दी है। पता ही नहीं चलता कि तब दुनिया में और कुछ भी होता था कि नहीं। यश राज फिल्म्स के लिए उसका स्वर्ण जयंती साल ठीक नहीं रहा है और इस साल की कंपनी की आखिरी रिलीज फिल्म ‘शमशेरा’ का भी बॉक्स ऑफिस पर सफर कठिन दिख रहा है। फिल्म को सोचने और बनाने में यहां बस उतना ही फर्क है जितना कि ओपनिंग क्रेडिट्स में फिल्म की लेखिका खिला बिष्ट का नाम हिंदी में खिला ‘बीस्ट’ लिखने में।
फिल्म ‘शमशेरा’ एक लिहाज से देखा जाए सुल्ताना डाकू की कहानी की फिल्मी रूपांतरण है। इस किरदार पर हिंदी सिनेमा में पहले भी फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन इस बार यश राज फिल्म्स ने इसे नए सिरे से पेश करने का बीड़ा उठाया। फिल्म की कहानी का कालखंड 1871 से लेकर 1896 के बीच का है।
ऋग्वेद की ऋचा ‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीत, बाहू राजन्यः कृतः| उरू तदस्य यद्वैश्य:, पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥’ के संदर्भ के साथ अपनी कहानी का आधार बुनने वाली इस फिल्म की शुरुआत ही बहुत प्रतिगामी है। नीची जातियों और ऊंची जातियों के संघर्ष को उभारने की कोशिश में फिल्म का प्रस्थान बिंदु गड़बड़ाता है। फिल्म उन तमाम फिल्मकारों के लिए भी सबक है जो दक्षिण मुंबई की आबोहवा में पलने, बढ़ने के बाद फिल्में उन दर्शकों के लिए बनाते हैं जिनकी दैनिक जीवन शैली से उनका कभी साबका तक नहीं पड़ा।
निर्देशक करण मल्होत्रा ने फिल्म की पटकथा अपनी पत्नी एकता के साथ मिलकर लिखी है। इसे लिखते समय करण और एकता दोनों ने फिल्म के मुख्य किरदारों के आसपास का वातावरण रचने की तरफ ध्यान ही नहीं दिया है। नगीना और काजा के अलावा भी उस वक्त दुनिया में कुछ था, इसका पता पूरी फिल्म में नहीं चलता।
पीयूष मिश्रा के लिखे संवाद उस वक्त का असर पैदा नहीं कर पाते हैं जब देश में खड़ी बोली का प्रचार प्रसार होना शुरू ही हुआ था। अवधी और ब्रज बोलने वाला फिल्म में एक भी किरदार नहीं है जो उत्तर भारत की उन दिनों की अहम बोलियां थी। सौरभ शुक्ला के किरदार के जरिये उस वक्त की प्रचलित पद्य संवाद शैली को पीयूष मिश्रा बस छूकर निकल गए हैं।