सेवा में,
बड़के भैया,
सादर चरण स्पर्श🙏
मैं यहां कुशलपूर्वक हूं और आपकी कुशलता के लिये रोज काली माई से कामना करती हूं!
आगे आपको मालूम कि इस बार राखी 03 अगस्त को पड़ रही है। उस दिन रविवार भी नहीं है, आपकी छुट्टी भी नहीं होगी लेकिन मन में जाने क्यूं ये विश्वास है कि इस बार आप आयेंगे जरुर!
हालांकि ये विश्वास पिछले चार साल से लगातार टूट रहा है!
फिर भी, फिर भी मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है। नहीं जानती क्या कि आपके जिम्मे कितने काम हैं, घर-परिवार की जिम्मेदारी और उपर से सरकार की अफसरी! पर ये जो दर-दयाद हैं ना, एकदम जलनशील प्रवृत्ति के हैं। कहते हैं कि दिन-रात भाईवाली बनती है और वो एक बार इहां झांकने तक नहीं आता!
खैर, जाने दीजिये…मैं उनकी बातों पर कान थोड़े ही धरती हूं!
कितना प्यार करते हैं ना आप मुझसे! पहले बाबूजी…फिर माई…अब तो एक आप और भऊजी का ही मुंह देखके नैहर की डगर पर पांव रखती हूं!
लेकिन भैया! पिछली बार जब मैं गांव गयी थी तो मुनेसरा काकी बता रही थीं कि आप पिछले रक्षाबंधन को आये थे, भाभी को उनके नैहर राखी बंधवाने ले जाने के लिये!
भैया…उनके गांव से तीन कोस ही दूर तो हूं मैं!
एक बार गाड़ी यहां भी घुमा देते तो भर नजर देख लेती तुम्हें!
अब भाभी को मैं क्या कह सकती हूं, आप बेहतर जानते हैं उनको! अभी गरमी में जब “ये” सूरत से आये थे घर पर गेंहूं की कटनी में तो बाजार में उनके बाप-भाई से भेंट हो गयी थी, साथ में और लोग भी थे। उन्होंने तो ‘इन्हें’ पहचानने से भी इंकार कर दिया था!
उस दिन घर आये तो बहुत उदास थे! कह रहे थे–‘हमलोग गरीब हैं ना, इसीलिये तुम्हारे भाई के साले ने नजर फेर ली!’
फिर भी भैया,जाने दीजिये! मैं जानती हूं ना कि मखमल में टाट का पैबंद थोड़े शोभा देता है!
जानते हो भैया, जब तक माई-बाबू जिंदा थे…मैं बेहिचक पैर उठाकर नैहर चली आती थी पर अब भाभी का मुंह निहारती हूं कि चलते-चलते भी एक बार दूसरे के ही मन से सही कम से कम आने को बोल देतीं!
भैया! आप और हम तो एक ही मां के पेट से हैं! आप तकलीफ नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा!
जानते हैं, पिछली बार जब मैं गांव आयी थी…एक दिन मेरा छोटका बहुत बिलख रहा था। कह रहा था…”मामी गिलास में रसना पी रही थीं..मैं वहीं खड़ा देख रहा था कि मुझे भी देंगी पर नहीं दिया! जब आधा गिलास पीकर छोड़ दीं तो लगा कि मुझे देंगी…पर नहीं, उन्होंने गिलास प्रियांशु को थमा दिया!”
पहले तो मुझे लगा कि बच्चा है, झूठ बोल रहा होगा पर एक दिन जब उसने प्रियांशु का नया कुर्ता पहन लिया तो भाभी ने बहुत झिड़का! कहने लगीं…”जीजी! आना है तो तुम अकेले आया करो! तुम्हारे बच्चे बड़े बद्तमीज हैं, मंहगी चीजों की कदर ही नहीं जानते!”
भैया! उनको क्या पता कि बचपन में तुम मेरे आगे का मांड़-भात भी छीनकर खा जाते थे!
क्या मांगती हूं मैं तुमलोगों से! तीज-खिचड़ी भेजना तो कब का बंद कर दिये हो! साल भर में एक बार नैहर आती हूं तो मरद की भेजी हुई साड़ी सबको दिखाकर कहती हूं कि भैया ने भेजी है!
और हां, मेरी गरीबी से मत डरो! लड़कियों की शादी में मदद नहीं मांगूगी आपलोगों से! आप तो बस सेर भर बताशा और एक सस्ती सी साड़ी भर लेके आ जाना ईमली घोंटाने की रस्म निभाने, मेरी साध पूरी हो जायेगी!”
माई कहती थी कि नैहर का कुकुर भी प्यारा लगता है! तुम तो सगे भाई हो मेरे! ये जो 75 पैसे की अंतर्देशीय देख रहे हो ना, जानते हो इसका रंग नीला क्यों है! क्योंकि बहुत दर्द भरा है इनमें! सांप का काटा भी तो नीला ही पड़ जाता है!
वैसे भैया, आप धर्मसंकट में मत पड़ना क्योंकि उसका उपाय भी कर दिया है मैंने! चिट्ठी के साथ एक राखी और चालीस रुपये भी भेज रही हूं, ना आ पाओ तो वहीं इसे बांधकर मुंह मीठा कर लेना! यहां मैं लोगों से हर बार की तरह फिर एक नया बहाना गढ़ लूंगी!
अंत में भैया…
पत्र में जो गलत लिखा हो उसे छोटी बहन समझ के माफ कर देना!
और हो सके तो आ जाना इस बार! भूलना मत इस दुखियारी बहन को!
बोलो…अबकी तो आओगे ना भैया………….!*
आपकी प्रतीक्षा में….
आपकी भूली-बिसरी बहन..
खुशी
कथाकार –
कृपा शंकर मिश्र #खलनायक
गाजीपुर, उ0प्र0
चित्र—साभार गूगल से…..